Wednesday, April 21, 2010

क्या से क्या हो गया……

जब कभी मैं अकेला रहता हूँ और भावुक होता हूँ तो मेरा दिल मेरे दिमाग से पूछता है कि ये क्या से क्या हो गया और कभी बिरले जब गलती से कुछ देर के लिए मैं चितंन करता हुँ तो मेरा दिमाग मेरे दिल से पुछता है कि ये क्षेत्र ठीक तो है न? और हमेशा घंटो सरदर्द करवाने के बाद भी मैं ख़ुद को निरुत्तर ही पाता हूँ।
ये प्रश्नो का खेल सन् 2004 में शुरु हुआ जब मैंने दसवी की परीक्षा दी। बचपन से सपना था इंजीनियर बनने का। पर पता नहीं क्यों मेरे भाग्य ने हमेशा मेरे सपनों को अपने ऐटीच्युड पर ले लिया। इस बात का सबसे बड़ा सुबूत मुझे अपनी दसवीं के रिज़ल्ट से मिला और मुझे बारहवीं में बायोलॉजी लेना पड़ा। सपनो में थोड़ा सा चेंज़ आया और अब मैं डॉक्टर बाबू बनना चाहता था। परंतु ये दो साल कब और कैसे खत्म हो गए पता ही नहीं चला। ये दो साल मेरे अब तक के जीवन के सबसे जल्दी खत्म हुए दो साल थे। सपना डॉक्टर बाबू बनने का था और यहां बारहवीं पास करने के लाले पड़ रहे थे। मैंने भी बड़े प्रेम और आदर के साथ बाबूजी को बता दिया कि पिताजी रिजल्ट में डर लग रहा है। पिताजी ने हिम्मत बढ़ाते हुए कहा चिंता मत करो सब ठीक होगा वैसे डर किन विषयों में लग रहा है? मुझ में भी कुछ हिम्मत बढ़ी और मैंने कहा- “केमेस्ट्री, मैथ्स और फिजीक्स में”। अब परिस्थिति बिल्कुल पलट चुकी थी और पिताजी ने बड़े प्रेम और आदर भाव में कहा- “बेटा बचा क्या तुमने तो पाँच ही विषय लिए है”। उस वक्त मैं मानो ये चाह रहा था कि कुछ हो जाए और जमीन फट जाए और मैं उस में समा जाऊँ। पर मुझे ये पता नहीं था कि हमारी ये बात कोई और भी सुन रहा है और एक बार फिर मेरे भाग्य ने इसको अपने ऐटीच्युड पर ले लिया पर इस बार ये मेरे लिए पाजीटिव रहा और मैं बारहवीं पास कर गया।
अब विषय था कि जीवन में आगे क्या करना है। किसी ने बहुत ख़ुब कहा है अगर हौसले बुलंद हो तो राहे ख़ुद-ब-ख़ुद बन जाती हैं और कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। परंतु इसके पीछे का जो स्ट्रगल है वो मुझे आज तक समझ नहीं आया। बारहवीं पास करने का जश्न मनाने के बाद मुझे बस पता ये था कि कुछ भी हो जाए मुझे एडमिशन लेना है किसी चीज में भी। इसी सिलसिले में, मैं जुलाई में जमशेदपुर पँहुचा और फिर शुरु हुआ रीयल स्ट्रगल। इसी क्रम में एक दिन मैं करीम सीटी कॉलेज पँहुचा और कॉमर्स का फॉर्म लेते-लेते मैंने मास कॉम का फॉर्म ले लिया। देखते ही देखते मैंने रिटेन और इंटरवियु दोनो क्लीयर कर लिया और मैं मास कॉम से बैचलर्स करने लगा। पहले दो साल तक मुझे यही पता था कि मुझे बैचलर्स के बाद एम.बी.ए करना है। पर मुझे ये पता नहीं था कि मेरी इस इच्छा की वजह से पुरी दुनिया को दिक्कत उठानी पड़ेगी। इस बार मेरे भाग्य ने मेरे एम.बी.ए करने की बात को थोड़ा ज्यादा सीरियसली ही अपने ऐटीच्युड पर ले लिया और फलस्वरूप पूरे विश्व में रिसेशन आ गया। अब घर वालो ने कहा बेटा एम.बी.ए छोड़ो और अपने फिल्ड में ही मास्टर्स करो। एक बार फिर मैंने अपने सपनो में थोड़ा सा चेंज किया और अब मैं माखनलाल चतुर्वेदी के जनसंचार विभाग का छात्र हूँ। आज जब कोई मेरे से पूछता है कि आगे क्या करना है और किस फिल्ड में जाना है, तो मेरा दिल मेरे दिमाग से यही कहता है ये क्या से क्या हो गया..............

Thursday, April 15, 2010

Send her with Love and Pride………


India is a democratic country and we all are very free to make our own decision regarding our own life. Similar is for her even. It’s her life and she has got the right to make the decision for her life. What the hell problem we all are having and why are we having this problem?
She is the pride to the nation, she has brought many glory to the country. Then why now these scenes are being created. It’s her marriage and it’s her decision whom to marry and when her family is also ready then why to do all these? We are the Indian one who honour and respect its guest, we tell “atithi devo bhawa” and what are we doing now with Shoaib?
At present he is not a Pakistani. He is the groom of the country’s one of the most endearing daughter Sania Mirza. When the lady won medals and titles she was the pride daughter of the nation but now on just a decision of her marriage with a Pakistani cricketer, has snatched all her credits. To what extent is this ethical and logical?
Either we Indians should learn to accept and welcome decisions like this or we should put off the mask of diplomacy and democracy. These big things should not just be on paper but should be practically practiced. It really would have been an honour and pride if the entire country would have welcomed her decision and would have supported her. But we couldn’t do so, now also it is not late. Let’s come forward and send her with promise of always giving her the honour of being the one of the most endearing and pride daughter of ours and her motherland India. Please send Sania with love, honour, care, pride and well wishes for her upcoming married life. May God Bless Her……………!!

गलती से मैं लेट हो गया

मुझे पता है मैं लेट हो चुका हुँ कानू भैया को श्रद्धांजली देने में। लेकिन आप समझ सकते है कि इस व्यस्त जिंदगी में खुद के लिए समय नहीं मिलता है और फिर दूसरो, वो भी कानू भैया जैसें महान व्यक्ति के लिए तो समय निकालने के लिए एक सुनियोजित योजना बनानी पड़ती है। किसी ने बहुत खूब कहा है कि इस तेज रफ्तार जिंदगी में अपनी जगह पर खड़े रहने के लिए भी दौड़ना पड़ता है। बस इसी वजह से मैं लेट हो गया।
कानू भैया एक महान व्यक्ति थे। परंतु मुझे ये बात समझ में नही आती की हमें किसी भी महान व्यक्ति की महानता का पता उसके मरने के बाद ही क्यों चलता है। कानू भैया अगर महान थे तो वो 23 मार्च 2010 से पहले भी महान जरुर रहे होगें। एक व्यक्ति जिसने नक्सलवाद जैसा विद्रोह करवा दिया वो आम कदापि नहीं हो सकता। अगर कानू भैया आजादी से पहले आए होते तो हमारा भारत शायद 1947 से पहले ही आजाद हो चुका होता। लेकिन ये मनुष्य की विड़ंबना है कि उसे समय से पहले और भाग्य से ज्यादा कुछ नही मिलता।
कानू भैया महान थे इसमें कोई दो राय नही है परंतु वर्तमान में नक्सलवाद को देख कर अपने इस विचार पर एक बार संशय होता है। लेकिन इस संशय का ये कतई अर्थ नही है कि कानू भैया महान नही थे। आज कल के बच्चे जब बड़े हो जाते है तो वो अपने पिताजी के कहे में कहाँ रहते है। बस ऐसा ही कुछ नक्सलवाद के पिता कहे जाने वाले कानू भैया के साथ भी हुआ। ऐसा पहली बार नही हुआ है, अकसर ही महान लोग अपने बच्चों को अपनी महानता नही सिखा पाते और हमारे कानू भैया भी तो एक महान व्यक्ति ही थे।
मैंने शुरु में ही कहा था मैं लेट हो चुका हुँ तो आप ये सोच रहे होगे की मुझे ये याद कैसे आया की में लेट हो चुका हुँ। बस 7 अप्रैल के दंतेवाड़ा के नक्सली हमले के बाद। मुझे नहीं पता था कि मेरी इस छोटी सी भूल का ये परिणाम होगा। अगर आपने भी अभी तक कानू भैया को श्रद्धांजली नही दी है तो जल्दी करें कही आप भी लेट न हो जाएं। क्योंकि मुझे अपने लेट होने पर बहुत अफसोस है।

Monday, April 12, 2010

याद आये वो पल


कहते है वो यादें ही है जो हमेशा हमारे साथ रहती है। समय के साथ पुराने रिश्ते खत्म होते है और कई नये रिश्ते बनते है, पर वो यादें ही है जो हर बीतते समय के साथ और मजबूत हो जाती है।बात जब कॉलेज लाइफ के यादों की हो तो मजा दुगना हो जाता है। कई स्मृतियाँ और मस्ती के पल आँखो के सामने एक फीचर फिल्म की तरह चलने लगते है। कुछ हँसने के पल, कुछ मस्ती के लम्हें, वो रुठना, वो मनाना, वो सारे अनकहे लम्हें यादों के झरोखे में आ जाते है। साथ ही जब हमें एक ऐसा मंच मिल जाये जो कि हमारी उन यादों को ताजा कर दे और हमें उन यादों से जोड़ दे तो मजा बढ़ जाता है। कुछ ऐसा ही हुआ 4 अप्रैल 2010 को जब माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में पुराने छात्रों का सम्मेलन हुआ। वह दृश्य इतना मनोरम था कि सारे लोग अपनी यादों की दुनिया में खो गये। वो सारी यादें ताजा हो गई। मानो वो सारे लोग दुबारा अपनी युवा अवस्था में आ गये हो और अपने कॉलेज लाइफ को जी उठे। सारे पुराने छात्र अपनी पुरानी यादें हम सब से बाँट रहे थे और वही हम सब नये छात्र अपने पुराने कॉलेज की यादों में खो गए थे।कोई व्यक्ति कुछ भी बन जायें, वह कितना भी सफल हो जायें परंतु अपने पुराने कॉलेज के दोस्तों के आगे उसकी एक नही चलती। हमारी सारी शेखी उन महान पुरूषों के आगे धरी की धरी रह जाती है। आख़िर हो भी क्यों न ये हमारे उस सुख दुःख के साथी है जिनके साथ हमने अपने सारे राज बाटे, अपनी खुशियों का जश्न मनाया और दुःख के समय इन्ही कंधो पर रोए भी। हमारे ये दोस्त हमेशा हमारे साथ रहें या न रहें पर उनकी सारी यादें हमेशा हमारे साथ थी, हैं और रहेगी। दोस्तो, हमेशा याद आयेगें वो पल।